sdasad
    • 15 NOV 16
    क्यों कहते है गौमूत्र को पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ मूत्र ?

    आयुर्वेद, ऋग्वेद के उपवेद के रूप में मानव-चिकित्सा के लिए वर्णन किया गया ज्ञान है-

    ‘आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धवर्श्र्चेति ते त्रय:|
    स्थापत्यवेदमपरमुपवेदश्चतुर्विध: ||’

    वेद अनादि, शाश्वत है | इसलिए आयुर्वेद मानव-जीवन के साथ ही चला आ रहा है | आज तक इसका ज्ञान शाश्वत, आधोपदेश है | तपस्वी महर्षियों द्वारा इस वेदज्ञान को संवर्धित किया गया है | यह लोककल्याणार्थ, ब्रम्‍हा का कहा हुआ सिद्ध ज्ञान है | इसी आयुर्वेद की प्राचीनतम संहिताओं में चिकित्सा के लिए गोमूत्र का वर्णन है जो पीने एवं लगाने के योगों में पूर्ण सिद्ध है-

    ‘गौमूत्र गंगादयो नधो नेत्रयो: शशि’
    भविष्य महापुराण

    इसलिए आयुर्वेद में वर्णित पूर्वकर्मज व्याधियां भी इससे नष्ट हो जाती हैं |

    अष्टांग आयुर्वेद में भूतविद्या एक भाग है | गौमूत्र इसके प्रभाव से ही भूतभिष्यांग रोगी की चिकित्सा करता है | भूतावेश से रक्षा करता है | राक्षसी प्रकोप से कवच की तरह बचाता है |

    जाने- गौमूत्र किसका लें, गाय या बैल ?

    ‘गौमूत्रेन स्नप्यित्वा पुनर्गोरज सार्भकम’

    प्रसव होने पर गौ मूत्र को सूतिका-गृह में नित्य छिड़कते हैं | यहाँ तक कि सुतिका और बालक को स्नान कराते समय जल में गौमूत्र मिलाते हैं | सभी शुभ कर्म में गौमूत्र स्थान पवित्रीकरण के लिए प्रयुक्त करते हैं | शव को श्मशान घाट तक ले जाने से पूर्व उस पर गौमूत्र छिड़कते हैं | शवदाह करने से पूर्व भी शमशान घाट को पवित्र करने तथा प्रेत रक्षा की भावना से पवित्र करते हैं |

    हिंदू धर्म के सभी शुभ कर्म-यज्ञ, विवाह आदि कार्य में स्थान-पवित्रीकरण के लिए गोमूत्र का प्रयोग होता है | संध्या, आराधना से पूर्व ब्राह्मण लोग पंचगव्य आवश्यक रूप से आचमन करते हैं | यह सब इसे पवित्र गंगा स्वरूप होने के कारण ही है |

    कायचिकित्सा में इसका प्रयोग दिव्य महाऔषधि के रूप में प्रयोग होता है जो पूर्णतया सफल है | आयुर्वेद के अति प्राचीन चिकित्सा ग्रंथ चरकसंहिता (सूत्रस्थान, 1.100) में निम्न उल्लेख है-

    ‘गव्य सुमधुर किच्चिदोषधन कृमि कुष्ठनुत |
    कुण्डल, शमयेदपीत सम्याग्दोषोदरे हितम ||’

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    अर्थात गौमूत्र किंचित मधुर रस्युक्त होता है, दोषों (त्रिदोष) को नष्ट करता है | कृमि, कुष्ठ (त्वचा के समस्त रोग) तथा कॅंडू (खुजली-खाज) को शांत करता है | विधिवत पान से उदर के सभी रोगों के निदान में लाभ होता है |

    गाय का मूत्र कटु, रस, तीक्ष्ण, उष्ण, क्षारयुक्त होने से वायु कारक नहीं है | लघु अग्निदीपक, मेध्य, पित्तकारक, कफ, वातनाशक, शूल, गुल्म, उदर, आनाह (आध्यमान) नाशक, विरेचन एवं आस्थापन तथा जो रोग मूत्र से प्रयोग साध्य है, उनके गाय का मूत्र प्रयोग करना चाहिए |

    जाने- गौमुत्र से रोगो पर विजय प्राप्त करने के 15 सूत्र !

    कृमि रोग, शोथरोग, उदर रोग, अरुचि, विषविकार, शूल रोग, पांडु रोग, कफज विकार, वात विकार, गुल्म रोग, श्वित्ररोग व कुष्ठ रोग तथा अर्श रोग को नष्ट करता है एवं लघु होता है | उसका प्रयोग विरेचनार्थ, निरूहन वस्ति में, लेपन में, स्वेदन के लिए तथा कर्ण, शूल आदि में किया जाता है | यह अग्नि को प्रदीप्त करता है, आम को पचाता है तथा पुरीष को भेदन करता है | सब मूत्रों में गौमूत्र उत्तम होता है |

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